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गुरुवार, 24 जून 2021

आखिरी चिराग़


  रेलवे स्टेशन की भाग दौड़ में भागते भागते, मेरे कदम अचानक से सीढ़ियों पर ठठक के रुक पड़े । मेरा ध्यान गया उन चेहरों पर जो शायद एक उम्र से भी पुराने थें । जिनका पूरा बदन सूख के कांटे की तरह सिकुड़ गया था या यूं कहें कि बदन था ही नहीं, बस हड्डियों का एक कंकाल था, जो ठीक से चल फिर भी नहीं सकता था । जिसे चमड़े की खाल ने कस के जकड़ा था । कुछ टूटे फूटे दांत थें जो अब तब गिरने को तैयार थें । आंखों में गहरा अंधेरा था, बस कुछ आखिरी चिराग़ बचे थें, जो कभी भी बुझ सकते थें । अपने पूरे जीवनकाल में जो कुछ भी हासिल किया था उन्होंने, सब कुछ खो के बैठे थें ।



 मैं उनका खोया उन्हें लौटा तो नहीं सकता था, मगर मेरे अंदर की आवाज ने कहा कि मैं उन भूखे पेटों को एक वक्त का खाना दे सकता हूं । मैं उन ठिठुरती हड्डियों को कंबल की गर्मी दे सकता हूं । दया और सहानुभूति की भावना में खोए मेरे हाथ मदद के लिए आगे बढ़ने लगे ।


 मगर तभी मेरा ध्यान भीड़ के अनगिनत चेहरों पर गया, जिन्हें उनके होने या ना होने का इल्म तक नहीं था । ऐसे चेहरें जिन्हें सब देखकर भी फर्क नहीं पड़ रहा था । जिनके पत्थर दिल अपने अलावा किसी और के दुख से नहीं पिघलते । जिनके लिए दुत्कार के आगे बढ़ जाना, बेझिझक गालियां देना एकदम सहज था । ऐसे चेहरें जिन्हें समाज 'इंसान' कहा करता था ।


 उन्हें देखकर चिंता के बादलों ने मेरे मन को घेरना शुरू कर दिया । मुझे डर सताने लगा की कहीं इस समाज ने मुझे ऐसे देख लिया तो मुझे अपनाने से इंकार ना कर दे । मुझे डर सताने लगा की कहीं ये समाज मुझे 'इंसान' मानने से इंकार ना कर दे । 


 मेरे बढ़ते हुए हाथ झिझक के वापस मुड़ गए और रुके हुए कदम दौड़ के आगे बढ़ गए । मैं सीढ़ियों से चढ़के ऊपर चला गया मगर उन्हीं सीढ़ियों से नीचे गिरती मेरी इंसानियत ने शर्म के मारे अपना चेहरा छुपा लिया था । 


 मैं खुश था कि जमाने की नजरों में मैं इंसान बन गया हूं मगर वहीं उन बूढ़ी, बुझी हुई आंखों में और गहरा अंधेरा छा गया था । बचा हुआ एक आखिरी चिराग़ अपने बुझने के इंतजार में लग गया था ।

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