अपनी परेशानियों को ख्यालों में कई गुना बढ़ाते-बढ़ाते, मैं बोझिल कदमों से चलता जा रहा था । ध्यान मेरे रास्तों पर और सब्जियों पर नहीं था । मैं अपने ख्यालों में ही कहीं गुम था, या यूं कहूं कि अपनी बेचारगी का शिकवा करने से मुझे फुरसत ही नहीं थी ।
तभी, सब्जी बाजार की सारी भीड़ भाड़ और सारी आवाजों को चीरते हुए मेरी नजर उस पर पड़ी । नन्हें नन्हें कदमों से दौड़ती हुई वो मेरी तरफ ही आ रही थी । कपड़े उसके मैले कुचैले से थे, सारा शरीर धूल मिट्टी से सना था । उसके नाजुक से पैर निर्दई कंकड़ पत्थरों को झेलते हुए चले जा रहे थें। हवाओं के तरानों में झूमते उसके बाल, उसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा रहे थें । वो पास आई, अपनी मां के साथ बैठ गई और अपनी छोटे छोटे हाथों से सब्जियां उठा के तराजू पर चढ़ाने लगी । वो हाथ जिन्हें गुड़ियों से भी ठीक से खेलना नहीं आता, उन्हें मजबूरियों ने क्या क्या सीखा दिया था । नासमझ थी वो, मगर जिम्मेदारियों का एहसास उसे मुझसे कहीं ज्यादा था । उसने सब्जी की पॉलिथीन पकड़ाते हुए मुझे देखा और हल्के से मुस्कुराई । उसकी इस मासूम मुस्कुराहट ने मुझे मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया । उसकी उस जादुई मुस्कान का मुझपे असर कुछ वैसा ही था, जैसा गरम कढ़ाई में पड़े घी के टुकड़े का होता है । इक पल को सब कुछ भूल मैं उसकी मासूमियत के जन्नत में खो गया था । फिर उसके सिर पर हल्के से हाथ रखके मैं आगे बढ़ गया ।
अपनी बेबसी का एहसास भी था मुझे और अपने हालात पर अब उतना अफसोस भी नहीं था । वो भी सारे सितम से बेखबर होके अपनी मासूमियत को समेटने में लग गई ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें